जानवरों का क़त्ल न मज़हब के ख़िलाफ़ और न बेरहमी है बल्कि एक फ़ित्री ज़रूरत है

जानवरों का क़त्ल न मज़हब के ख़िलाफ़ और न बेरहमी है बल्कि एक फ़ित्री ज़रूरत है
जानवरों का क़त्ल न मज़हब के ख़िलाफ़ और न बेरहमी है बल्कि एक फ़ित्री ज़रूरत है


जानवरों का क़त्ल न मज़हब के ख़िलाफ़ और न बेरहमी है बल्कि एक फ़ित्री ज़रूरत है। 


✒️  मुहम्मद शब्बीर अनवर क़ास्मी मधेपूरी
उस्ताज़ मदरसा बदरुल इस्लाम बेगूसराय
व साबिक़ रुकन मदनी दारुलमुताला

मुस्लमानों का अज़ीम त्यौहार ''बक़रईद" के क़रीब आते ही पिछले चंद बरसों से फ़िर्क़ा परस्त तंज़ीमें हरकत में आ जाती हैं। मन्सूबा बंद पोस्टर बाज़ी कर के जीव हत्या (ज़िब्हे हैवान) बल्कि क़ुर्बानी के ख़िलाफ़ तश्कीक और एक तबक़ा के जज़्बात को बरअंगेख़्ता करने की कोशिश की जाती है।इन दिनों भी सोशल मीडीया पर एक पोस्ट गर्दिश में है और ये पैग़ाम देने की कोशिश है कि (1) इस्लाम ने गोश्त ख़ोरी की इजाज़त देकर बेरहमी का सुबूत दिया है। (2)  ज़िब्हे हैवान एक ज़िंदा वुजूद को क़त्ल करना यानी जीव हत्या है। (3) गोश्त ख़ोरी से इन्सान में तशद्दुद और हिंसा का मिज़ाज बनता और ये इन्सान पर मनफ़ी असर डालता है इस लिए ज़िब्हे हैवान की इजाज़त नहीं होनी चाहीए। हालांकि हक़ीक़त ये है कि इन्सानी ग़िज़ा के लिए जानवरों को ज़िबह करना न मज़हब के ख़िलाफ़ है और ना ही बेरहमी है बल्कि ये एक फ़ित्री ज़रूरी है और इस से मआ़शी मफ़ादात जुड़े हैं जिस को नज़रअंदाज़ करना इंसाफ पसंदी नहीं है। ज़रूरत है हमारे बिरादराने वतन जज़्बाती हुए बग़ैर ठंडे दिल से इस पर ग़ौर करें और मुस्लिम उम्मत का भी फ़र्ज़ है कि इश्तिआ़ल के बजाय दलील की ज़बानी फ़िर्क़ा परस्त ताक़तों को समझाएँ।

ये बात ज़हेन नशीं होनी चाहिए कि इन्सान इस दुनिया में जरूरतों और हाजतों के साथ पैदा किया गया है। इस के वुजूद का कोई हिस्सा नहीं जो अपनी हयात-ओ-बक़ा और हिफ़्ज़-ओ-स्यानत में एहतियाज से फ़ारिग़ हो ।हवा और पानी के बाद उस की सबसे बड़ी ज़रूरत ख़ुराक है।और यही ज़रूरत है जिसने ज़िंदगी को मुतहर्रिक और रवाँ-दवाँ रखा है ।तमाम हंगामाहा ए  हयात का हासिल सिवाए ग़िज़ाई ज़रूरत की तकमील के और किया है?

गोश्त ख़ाने का दस्तूर इंतिहाई पुराना है:


एक अहम इन्सानी ग़िज़ा के तौर पर तस्लीम करते हुए गोश्त ख़ाने का दस्तूर इंतिहाई क़दीम है। दुनिया के तमाम मज़ाहिब में गोश्त ख़ाने की इजाज़त दी गई है। हिंदुस्तानी मज़ाहिब में भी जैन धरम के इलावा सभी मज़ाहिब में गोश्त ख़ाने का जवाज़ मौजूद है। ग़ैरमुस्लिम भाईयों के बीच आजकल गोश्त ख़ाना मना होने की जो बात मशहूर है वो महेज़ अपने मज़हब और अपनी तारीख़ से ना जानकारी पर मबनी है।

ख़ुद वेदों में जानवरों के खाने,पकाने और क़ुर्बानी का तज़्किरा मौजूद है। रिग वेद (7:11:17:) मैं है : ''ए इंद्र तुम्हारे लिए पिसान और विष्णु एक सौ भैंस पकाएं।' यजुर्वेद (अध्याय: (20:87) मैं घोड़े, सांड, बैल, बाँझ गाय और भैंस को देवता की नज़र करने का ज़िक्र मिलता है। मनु स्म्रती (अध्याय 3:268) मैं कहा गया है : ''मछली के गोश्त से दो माह तक, हिरन के गोश्त से तीन माह तक और परिंद के गोश्त से पाँच माह तक पुत्र आसूदा रहते हैं।" ख़ुद गांधी जी ने इस बात को तस्लीम किया है कि एक ज़माने तक हिंदू समाज में जानवरों की क़ुर्बानी और गोश्त ख़ोरी का अमल आम था। डाक्टर ताराचंद के बक़ौल वैदिक क़ुर्बानियों में जानवरों के चढ़ावे भी हुवा करते थे। देवी देवताओं के नाम पर बलिदान की रिवायत आज भी हिंदू समाज में जारी है।

कमी व ज्यादती के शिकार क़ानूने फ़ित्रत के बाग़ी


दुनिया के मज़ाहिब व अक़वाम में जानवरों के बारे में एक ख़ास क़िस्म का इफ़रात व तफ़रीत है। एक तरफ़ वो लोग हैं जो हैवानी अज्ज़ा के ग़िज़ाई इस्तेमाल को बेरहमी और जीव हत्या तसव्वुर करते हैं और इस को मुतलक़ मना करते हैं। दूसरी तरफ़ वो लोग हैं जो हर जानवर को इन्सानी ख़ुराक क़रार देते हैं और इस बाब में कोई इम्तियाज़ रवा नहिं रखते। ये दोनों ही एतिदाल से दूर और क़ानूने फ़ित्रत के बाग़ी हैं। खुदा ने इस कायनात में जो निज़ामे रुबूबियत क़ायम किया है वो इस पर मब्नी है कि आला मख़लूक़ अपने से कमतर मख़लूक़ के लिए सामान-ए-बक़ा है। ग़ौर करें कि दरिंदे अपने से कमज़ोर हैवान से पेट भरते हैं , चौपाए नबातात खाते हैं और इसी पर उनकी हयात का दार-ओ-मदार है , हालांकि नबातात में भी एक नौअ़  की हयात मौजूद है ।बड़ी मछलियाँ छोटी मछलियों को ग़िज़ा बनाती हैं और छोटी मछलियाँ आबी हशरात को। ज़मीन पर रहने वाले जानवरों की ख़ुराक ज़मीन पर चलने वाले हशरातुल अर्ज़ हैं। छोटे परिंदे बड़े परिंदों की ख़ुराक हैं और कीड़े मकोड़े छोटे परिंदों के। ख़ुदा की कायनात पर जिस क़दर ग़ौर किया जाये उस के निज़ाम-ओ-इंतिज़ाम की असास यही है जो लोग इस उसूल के बग़ैर दुनिया में ज़िंदा रहना चाहते हैं उनके लिए कम से कम ख़ुदा की इस बस्ती में रहने का कोई जवाज़ नहीं कि पानी का कोई क़तरा और हवा की कोई सांस उस वक़्त तक ह़लक़ से उतर नहीं सकती जब तक कि सैकड़ों नादीदा जरासीम अपने लिए पैग़ाम-ए-अजल ना सुन ले।
तो ग़ौर कीजिए : जीव हत्या के वसीअ़ तसव्वुर के साथ पानी का एक क़तरा भी नहीं पी सकते , हवी की कोई सांस नहीं ले सकते और न ही दवाओं का इस्तेमाल रवा हो सकता है जो जिस्म में मुज़िर्रे सेहत जरासीम के ख़ातमा का सबब हैं। नीज़ अगर जीव हत्या से बचना है तो नबाताती ग़िज़ा से भी बचना होगा क्यों कि आज की साईंस ने इस बात को साबित कर दिया है कि जिस तरह हैवानात में ज़िंदगी और रूह मौजूद है इसी तरह पौदों में भी ज़िंदगी पाई जाती है और नबातात भी एहसासात रखते हैं। ख़ुद हिंदू नज़रिया में भी पौदों में ज़िंदगी मानी गई है ।स्वामी दयानन्द जी ने ''आवागमन" मैं रूह मुंतक़िल होने के तीन क़ालब क़रार दिए हैं: इन्सान, हैवान और नबातात। ये नबातात में ज़िंदगी का खुला इक़रार है। तो अगर जीव हत्या से बचना है तो नबाताती ग़िज़ा से भी बचना होगा गोया इस कायनात में ऐसे इन्सानों के लिए कोई जगह नहीं जो मुकम्मल तौर पर जीव हत्या से बच कर जीना चाहते हैं।
यही बेएतिदाली इस सिम्त में भी है कि हर हैवान को ग़िज़ा के लिए दुरुस्त समझा जाये।ये मुसल्लमा हक़ीक़त में से है कि इन्सान पर ग़िज़ा का असर होता है। ये असर जिस्मानी-ओ-रुहानी भी होता है और अख़लाक़ी भी।हैवानात में शेर-ओ- बबर दरिंदे हैं , साँप और बिच्छू की कीनापरवरी व रीशा ज़नी की खू मारूफ़ है , गधे में हुमुक़ ज़रबुल मसल है , ख़िंज़ीर में जिन्सी बेएतिदाली व हवसनाकी का असर उन क़ौमों में साफ़ ज़ाहिर है जो इस का इस्तेमाल करती हैं , कुत्ते की हिर्स और क़नाअत से महरूमी नोके ज़बाँ है , छिपकली और बअज़ हशरातुल अर्ज़ बीमारियों का सरचश्मा हैं , बंदर की बेशरमी , लोमड़ी की चालबाज़ी, गीदड़ की बुज़दिली इज़हार का मुहताज नहीं। मक़ामे फ़िक्र है कि अगर इन्सान को इन जानवरों के ख़ुराक बनाने की इजाज़त दे दी जाये तो क्या यही औसाफ़ उस के वुजूद में रच बस ना जाऐंगे।

जानवरों में हलाल व हराम की तफ़रीक़

इसी लिए इस्लाम ने इन दोनों के दरमयान एतिदाल की राह निकाली। एक तरफ़ बहुत से जानवरों को हलाल क़रार दिया। दूसरी तरफ़ मुर्दार का गोश्त हराम किया जो इन्सान की जिस्मानी व रोहानी सेहतों को बर्बाद करने वाला है, उन जानवरों को हराम क़रार दिया जिन के गोश्त से अख़लाक़े इन्सानी मस्मूम होजाते हैं। इस सिलसिले में क़ुरआन-ए-मजीद ने एक क़ायदा मुक़र्रर कर दिया कि तय्यिबात और पाक मवेशी हलाल हैं और नापाक और बदख़ू जानवर जिनको क़ुरआन की ज़बान में ख़बाइस कहा गया है हराम हैं (अलाअराफ़:157)  लेकिन इस फ़ैसला को हर इन्सान के ज़ौक़-ओ-मिज़ाज पर मुनहसिर कर दिया जाना ना मुम्किन था और ना मुनासिब।चुनांचे शरीअत ने इस की जुज़्वी तफ़सीलात भी मुतअ़य्यन कर दी कि किन का शुमार तय्यिबात में है और किन का ख़बाइस में। फिर जिन जानवरों को हलाल क्या उन का गोश्त खाने में भी ऐसा पाकीज़ा तरीक़ा ज़िबह बताया जिससे नापाक ख़ून ज़्यादा से ज़्यादा निकल जाये और जानवर को तकलीफ़ कम से कम हो। तिब्बी उसूल पर इन्सानी सेहत और ग़िज़ाई एतिदाल में इस से बेहतर कोई तरीक़ा ज़िबह नहीं हो सकता। बहरहाल जानवर का गोश्त खाने में इन्सान को आज़ाद नहीं छोड़ा कि जिस तरह दरख़्तों के फल और तरकारियां वग़ैरा को जैसे चाहें काटें और खालें इसी तरह जानवर को जिस तरह चाहें खा जाएं।

हैवान हलाल होने की हिक्मत और अरकान व शरायत


ह़ज़रत शाह वलियुल्ला क़ुद्दिसा सिर्रुहू ने हुज्जतुल्लाहिलबालिग़ा और हज़रत मौलाना मुहम्मद क़ासिम नानोतवी रहमतूल्लाहि अलैहि ने हुज्जतुल इस्लाम में इस्लामी ज़बीहा की हिक्मत और इस के आदाब व शरायत पर बसीरत अफ़रोज़ तहक़ीक़ात फ़रमाई हैं यहाँ उनको पूरा नक़्ल करने का मौक़ा नहीं , उनमें से एक बात बुनियादी एहमियत रखती है कि जानवरों का मुआमला आम नबाताती मख़लूक़ जैसा नहीं। क्यूँ कि इन में इन्सान की ही तरह रूह है , इन्सान की तरह देखने , सुनने , सूँघने और चलने फिरने के आलात व आ़ज़ा हैं , इन्सान की तरह उन में एहसास व इरादा और एक हद तक इदराक भी मौजूद है। इस का सरसरी तक़ाज़ा ये था कि जानवर का खाना मुतलक़न हलाल न होता , लेकिन हिक्मते इलाही का तक़ाज़ा था कि उसने इन्सान को मख़दूमे कायनात बनाया, जानवरों से ख़िदमत लेना, उनका दूध पीना और ब वक़्ते ज़रूरत ज़िबह करके उनका गोश्त खालेना भी इन्सान के लिए हलाल कर दिया मगर साथ ही उस के हलाल होने के लिए चंद अरकान और शराइत बताए जिनके बग़ैर जानवर हलाल नहीं होता।
पहली शर्त ये है कि हर ज़िबह के वक़्त अल्लाह के उस इनाम का शुक्र अदा किया जाये कि रूहे हैवानी में मुसावात के बावजूद उसने कुछ जानवरों को हलाल किया और इस शुक्र का तरीक़ा क़ुरआन-ओ-सुन्नत ने बताया कि ज़बह के वक़्त अल्लाह का नाम लें। अगर अल्लाह का नाम कस्दन छोड़ दिया तो वो हलाल नहीं , मुर्दार है।

दूसरी शर्त जानवर को शरीअत के पाकीज़ा तरीक़ा से ज़िबह करना यानी शरई तरीक़ा पर हुलक़ूम और सांस की नाली और ख़ून की रगें काट देना।

तीसरी शर्त ज़ाबेह का मुस्लमान होना या किताबी होना है। इस्लाम से क़बल जानवरों के गोश्त खाने के अजीब अजीब तरीक़े बग़ैर किसी पाबंदी के राइज थे। मुर्दार का गोश्त खाया जाता था। ज़िंदा जानवर के कुछ आ़ज़ा काट कर ख़ा लिए जाते थे। जानवर की जान लेने के लिए भी इंतिहाई बे रहमाना सुलूक किया जाता था, कहीं लाठियों से मार कर कहीं तीरों की बौछार कर के जानवर की जान ली जाती थी।

हिंसा और अहिंसा का तअल्लुक़ महेज़ ग़िज़ाओं से समझना जहालत


रहा यह सवाल कि गोश्त ख़ाने से इन्सान में तशद्दुद और हिंसा का मिज़ाज बनता है और ये इन्सान पर मनफ़ी असर डालता है , तो दुनिया की तारीख़ और ख़ुद हमारे मुल्क का मौजूदा माहौल उस की तरदीद करता है। आज भारत में जहां कहीं भी फ़िर्कावाराना फ़सादात हो रहे हैं और ज़ुल्म व सितम का नंगा नाच हो रहा है , ये सब कुछ उन लोगों के हाथों और इशारों से हो रहा है जो सब्ज़ी ख़ोर हैं और गोश्त ख़ोरी के मुख़ालिफ़ हैं। दुनिया के रहनुमाओं में गौतमबुद्ध और हज़रत मसीह को अदमे तशद्दुद और रहम दिल्ली का सब से बडा़ दाई और नक़ीब तसव्वुर किया जाता है लेकिन क्या यह हस्तियाँ गोश्त नहीं खाती थीं ? ये सभी गोश्त ख़ूरथे। और हिटलर से भी बढ़कर कोई तशद्दुद , ज़ुलम और बेरहमी का नक़ीब होगा लेकिन हिटलर गोश्त खौर नहीं था सिर्फ सब्ज़ी को अपनी ग़िज़ा बनाता था। इस लिए ये समझना कि हिंसा और अहिंसा का तअ़ल्लुक़ महेज़ ग़िज़ाओं से है बेवक़ूफ़ी और जहालत ही कही जा सकती है।
जब तक दिलों की दुनिया तब्दील न हो और आख़िरत में जवाबदिही का एहसास न हो तो महेज़ ग़िज़ाएँ इन्सानी मज़ाक़-ओ-मिज़ाज को तबदील नहीं कर सकतीं। बअज़ फ़ित्ना प्रदाज़ों का कहना है कि गौकशी वग़ैरा की मुमानअत हम मज़हबी नुक़्ता ए नज़र से नहीं करते हैं बल्कि ये एक मआशी ज़रूरत है। जानवर अगर ज़िबह न किए जाएं तो हमें दूध और घी सस्ते दामों में फ़राहम होंगे मगर ये एक वाहिमा ही है। हक़ीक़त ये है कि जिन मुल्कों में भारत से ज़्यादा जानवर ज़िबह होते हैं और जहां जानवरों के ज़िबह पर किसी तरह की पाबंदी नहीं वहाँ हमारे मुल्क के मुक़ाबले में दूध और घी सस्ते भी हैं और फ़रावानी भी है।इस की मिसाल अमरीका और यूरोप हैं। हमारे मुल्क में गोश्त ख़ोरी कम होने के बावजूद मज़कूरा अश्या महंगे हैं। नीज़ क़ाबिले ग़ौर पहलू ये भी है कि जानवर एक उम्र को पहुंच कर नाकारा हो जाते हैं , अगर उन्हें ग़िज़ा बनाने की इजाज़त ना दी जाये तो मवेशी प्रवर किसानों के लिए ऐसे जानवर बार बन जाऐंगे और ग़रीब किसान जो ख़ुद आसूदा नहीं वो क्यूँ-कर इस बोझ को बर्दाश्त करपाऐंगे।2014 से मर्कज़ में भाजपा की हुकूमत है ।उसने गौकशी क़ानून को सख़्ती से नाफ़िज़ करने की ठानी है। इस का हश्र किया है हम अपनी आँखों से मुशाहदा कर रहे हैं। सरकारी गौशालों में ऐसे सैकड़ों हज़ारों मवेशी चारा न मिलने की वजह से भूक से तड़प-तड़प कर हलाक हुए , हो रहे हैं और होंगे भी, जो बहरहाल घाटे का सौदा है।

गोश्त के फ़वाइद व नुक़सानात


गोश्त इन्सानी ख़ुराक का एक अहम जुज़ है। इस से इन्सानी सेहत पर कई अच्छे असरात मुरत्तब होते हैं। गोश्त से जिस्म को प्रोटीन, लहमिय्यात , आयरन , विटामिन बी वग़ैरा हासिल होती हैं जो एक सेहत मंद जिस्म के लिए ज़रूरी हैं ताहम गोश्त की हद से ज़्यादा मिक़दार का इस्तेमाल किसी भी इन्सान के लिए सूदमंद के बजाय मुसीबत बन जाता है।क्यूँ कि हर क़िस्म की ग़िज़ा के अपने फ़वाइद और नुक़्सानात होते हैं इस लिए आम रूटीन में ज़रूरत के मुताबिक़ खाना चाहिए और एक मख़सूस हद से ज़्यादा इस्तेमाल नहीं करना चाहिए। बर्तानवी नशरिय्याती इदारा बी-बी सी में शाए रिपोर्ट के मुताबिक़ बालिग़ अफ़राद को यौमिय्या 70 ग्राम जब्कि हफ़्ते में 500 ग्राम यानी सात दिनों में सिर्फ निस्फ़ केलो गोश्त खाना चाहिए जिसे बर्तानिया के सेहत के हवाले से क़ायम करदा साइंटिफिक एडवाइज़री कमीशन ने अपने शहरीयों के लिए तजवीज़ किया।
अमरीका की यूनीवर्सिटी अलबामा में अमरीकी तहक़ीक़ी माहिरीन ने गोश्त ख़ोरी और सब्ज़ी ख़ोरी के फ़वाइद और नुक़्सानात पर तहक़ीक़ी मुताला किया, जिसमें लोगों की ग़िज़ाई आदतों की निगरानी और उनके सेहत पर पड़ने वाले असरात का मुआइना किया। माहिरीन ने एक लाख साठ हज़ार लोगों का डैटा जमा किया। इस की रोशनी में रिपोर्ट मुरत्तब की और बताया कि सिर्फ सब्ज़ी ख़ोरी के बहुत ज़्यादा नुक़्सान हैं।सब्ज़ी का मुस्तक़िल इस्तिमाल इन्सान को डिप्रेशन बना देता है जिसकी वजह से बअज़ लोग ख़ुदकुशी कर लेते हैं। इस के बरअक्स वो लोग जो ख़ुराक में गोश्त इस्तिमाल करते हैं , उनकी ज़हनी सेहत बेहतर रहती है और वो मज़बूत आ़साब के मालिक होते हैं। तहक़ीक़ी टीम के सरबराह डाक्टर ऐडवर्ड आर जर का कहना है: हम लोगों को नसीहत करेंगे कि अगर आप डिप्रेशन , ज़हनी ख़लफ़शार और ख़ुद को नुक़्सान पहुंचाने के ख़तरनाक रवैय्ये से बचना चाहते हैं तो ख़ुराक में सब्ज़ी के साथ गोश्त का भी इस्तिमाल करें। (नवा-ए-वक़्त पोर्टल यकुम मई 2020

गोश्त भी अपनी इक़साम के एतबार से लज़्ज़त और तासीर में मुख़्तलिफ़ होताहै।मछली और मुर्ग़ी के गोश्त से इन्सानी जिस्म को प्रोटीन वग़ैरा हासिल होती है इस में कल्लूरीज़ और चिकनाई की मिक़दार भी नस्बता कम होती है।मटन में चिकनाई की मिक़दार चिकन की निसबत ज़्यादा होती है ।बीफ में चिकनाई की मिक़दार ज़्यादा होती है अलबत्ता इस से दूसरी ग़िज़ाई ज़रूरीयात मसला प्रोटीन, ज़नक, फास्फोरस, आयरन और विटामिन बी वग़ैरा पूरी होती है। एक माहिर डाक्टर का कहना है कि एक नॉर्मल इन्सानी जिस्म को मुतवाज़िन ग़िज़ा की ज़रूरत होती है जिसमें लहमयात प्रोटीन वग़ैरा भी शामिल हैं जो गोश्त और दीगर चीज़ों से हासिल होती हैं,ताहम ज़रूरी है कि हर चीज़ को एतिदाल में और एक मख़सूस हद तक इस्तिमाल किया जाए ताकि बे एहतियाती और बदपरहेज़ी की वजह से लोगों को सेहत के हवाले से मुख़्तलिफ़ मसाइल का सामना ना करना पड़े

बेहतरीन ग़िज़ा है गोश्त

मज़कूरा तहक़ीक़ात की रोशनी में ये बात ज़ाहिर हो गई कि इन्सान के लिए अल्लाह-तआला की पैदा की गई मुख़्तलिफ़ तासीरवाली बेशुमार ग़िज़ाओं में उम्दा ग़िज़ा गोश्त है। रसूल अल्लाह सिल्ली अल्लाह अलैहि वसल्लम ने गोश्त कोदनयाव आख़िरत की उम्दा ग़िज़ा फ़रमाया है। सूरा तौरावर सूरा ज़ारयात में हज़रत इबराहीम अलैहिस-सलाम का अपने मेहमानों की फ़र्बा बिछड़ा को बिना भवन कर ज़याफ़त करने का तज़किरा है। शायद यही वजह है कि अहल ईमान गोश्त को मर्ग़ूब रखते हैं । आज भी अरब में ख़ास तौर पर अनाज से ज़्यादा गोश्त बतौर ग़िज़ा इस्तिमाल होताहै। और मेहमानों की आमद पर अक्सर अहल अरब आज भी पूरा दुंबा या बकरा तैयार कर के ज़याफ़त के लिए पेश करते हैं। ख़ुलासा ये कि गोश्त ख़ोरी की मुख़ालिफ़त फ़िकऱ्ापरस्त ताक़तें जितनी भी करें उस की इफ़ादीयत से इनकार नहीं किया जा सकता है ।जीवहत्या के वाहिमा से इस ग़िज़ाई ज़रूरत से इन्सान दस्त बर्दार नहीं सकता।

सबसे ज़्यादा गोश्त कहाँ खाया जाता है

गुज़श्ता पच्चास बरसों में दुनिया में गोश्त के इस्तिमाल में तेज़ी से इज़ाफ़ा हुआ है। एक रिपोर्ट के मुताबिक़ २०१७-ए-में गोश्त की पैदावारमें पाँच गुना इज़ाफ़ा हुआ । १९६० की दहाई की इबतिदा के ७करोड़ टन के मुक़ाबले ३३करोड़ टन हो गया। इस की बुनियादी वजह जहां आबादी का बढ़ना है वहीं आमदनी में इज़ाफ़ा भी अहम वजह है। लोग जितना ज़्यादा अमीर हूँ इतना ही ज़्यादा गोश्त इस्तिमाल करते हैं। २०१३ की रिपोर्ट के मुताबिक़ सबसे ज़्यादा गोश्त ख़ौर ममालिक में अमरीका और आस्ट्रेलिया सर-ए-फ़हरिस्त रहे। अमरीकी महिकमा ज़राअत के आदादव शुमार के मुताबिक़ गोश्त की खपत मेंकुछ सालों में दरहक़ीक़त इज़ाफ़ा हुआ है,२०१८मैं गुज़श्ता चंद दहाईयों के मुक़ाबले अमरीका में गोश्त की खेप काफ़ी ज़्यादा थी।योरपी यूनीयन में भी तक़रीबन कुछ असाही हाल है। इस के बरअक्स दुनिया के बेशतर ग़रीब ममालिक में नस्बता बहुत कम गोश्त खाया जाता है ।मुतवस्सित ममालिक गोश्त की मांग में इज़ाफ़ा कर रहे हैं। इस से ज़ाहिर है कि अमीरतरीन ममालिक सबसे ज़्यादा गोश्त खाते हैं जब कि ग़रीब ममालिक में गोश्त कम खाया जाता है। भारत में सूरत-ए-हाल मुख़्तलिफ़ है ,अगरचे औसत आमदनी में १९९०से अब तक तीन गुना इज़ाफ़ा देखा गया है मगर गोश्त की खपत में ऐसा नहीं हुआ ।एक सर्वे के मुताबिक़ भारत के दो तिहाई लोग किसी ना किसी किस्म का गोश्त ज़रूर खाते हैं उस के बावजूद यहां गोश्त बहुत कम खाया है।
उल-हासिल गोश्त इन्सानी ग़िज़ा का अहम हिस्सा है।गोश्त ख़ोरी ना मज़हब के ख़िलाफ़ है और ना ही बेरहमी है ।जीवहत्या का फ़ित्ना खड़ा करने वाले अफ़राद क़ुदरती निज़ाम के बाग़ी और इन्सान की फ़ित्री ज़रूरत की तकमील के मुख़ालिफ़ हैं ऐसे अफ़राद को अपने ग़लत नज़रिया और हरकतों से चाहीए ।

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