माहे मुहर्रम इस्लामी साल का पहला महीना | Hindidastak

माहे मुहर्रम इस्लामी साल का पहला महीना | Hindidastak

माहे मुहर्रम इस्लामी साल का पहला महीना


🖊️ ज़ैनुलआबिदीन क़ासमी
नाज़िम जामिआ क़ासमिया अशरफ़ुल उलूम नवाबगंज अलियाबाद ज़िला बहराइच यू.पी

मोबाइल नo  9670660363
zainulaabidinqasmi@gmail.com

*माहे मुहर्रम* इस्लामी साल (हिजरी कैलेंडर) का पहला महीना है, इसी महीने से इस्लामी जन्तरी की शुरूआत होती है, नबी-ए-अकरम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने इस महीना को ''अल्लाह का महीना'' फ़रमाया है, और फ़ज़ीलत व अज़मत में रमज़ानुल मुबारक के बाद इसी महीने का दर्जा है। सहाबि-ए-रसूल सय्यिदिना हज़रत अबू हुरैरा रज़ियल्लाहु अन्हु फ़रमाते हैं कि नबी-ए-अकरम ﷺ का इरशाद है कि रमज़ानुल मुबारक के बाद सबसे अफ़ज़ल रोज़ा अल्लाह के महीने मुहर्रम का रोज़ा है, (मुस्लिम शरीफ़)

इसी महीना की पहली तारीख़ को ख़लीफ़ा-ए-दोम, फ़ारुके आज़म, अमीरुल मोमिनीन सय्यिदिना उमर बिन ख़त्ताब रज़ीयल्लाहु अन्हु की शहादत हुई थी, और दसवीं तारीख़ को नवासा-ए-रसूल,जिगर गोशा-ए-बतूल सय्यिदिना हुसैन बिन अली रज़ीयल्लाहु अन्हु की शहादत का वाक़िया पेश आया था|

*शहादत ग़म का सबब है?*

वाज़ेह रहे कि वाक़िया-ए-शहादत की वजह से ना तो मुहर्रम का महीना ग़म का महीना है, और ना ही मुहर्रम की दसवीं तारीख़ ग़म की तारीख़ है, अगर शहादत की वजह से किसी महीना को ग़म का महीना या किसी तारीख़ को ग़म की तारीख़ क़रार दी जाये तो साल के हर महीने को ग़म का महीना और हर तारीख़ को ग़म की तारीख़ क़रार देनी पड़ेगी, क्योंकि साल का कोई महीना या कोई तारीख़ ऐसी नहीं है जिसमें किसी की शहादत का वाक़िया पेश ना आया हो, इस्लाम की तारीख़ तो शहीदों की शहादत से भरी पड़ी है। हक़ीक़त ये है कि शहादत ग़म का सबब नहीं है बल्कि शहादत तो एक ऐसी अज़ीम नेअमत है कि हर मोमिन को इस की तमन्ना करनी चाहिए, ख़ुद नबी-ए-अकरम ﷺ भी शहादत की तमन्ना फ़रमाते थे, चुनांचे सय्यिदिना हज़रत अबू हुरैरा रज़ीयल्लाहु अन्हु से रिवायत है कि रसूलुल्लाह ﷺ ने फ़रमाया क़सम है उस ज़ात की जिस के कब्ज़ा-ए-क़ुदरत में मेरी जान है मेरी तमन्ना है कि मैं अल्लाह के रास्ते में शहीद हो जाऊं, फिर ज़िंदा किया जाऊं फिर शहीद हो जाऊं, फिर ज़िंदा किया जाऊं फिर शहीद हो जाऊं (बुख़ारी शरीफ़, मुस्लिम शरीफ़) शहादत अगर ग़म का सबब होता तो नबी-ए-अकरमﷺ इस की तमन्ना क्यों फ़रमाते?

*यौमे आशूरा*

मुहर्रम की दसवीं तारीख़ को ''यौमे आशूरा" कहा जाता है, ये फ़ज़ीलत व अज़मत वाला दिन है, मगर याद रहे कि इस फ़ज़ीलत की वजह ये नहीं है कि इस दिन सय्यिदिना हुसैन बिन अली रज़ीयल्लाहु अन्हु की शहादत हुई थी जैसा कि बअज़ अवाम के ज़हनों में बैठा हुआ है, क्योंकि अगर ऐसा होता तो शहादत का वाक़िया पेश आने से पहले इस दिन की कोई फ़ज़ीलत ना होती, हालाँकि वाक़िया-ए-शहादत से पहले बल्कि हुज़ूर ﷺ की तशरीफ़ आवरी से पहले ज़माना-ए-जाहिलिय्यत में भी इस दिन की फ़ज़ीलत मुसल्लम थी, चुनांचे इसी फ़ज़ीलत व अज़मत की वजह से मुस्लिम शरीफ़ की रिवायत के मुताबिक मक्का मुकर्रमा में कुफ़्फ़ारे क़ुरैश और मदीना मुनव्वरा में यहूदी इस दिन रोज़ा रखा करते थे, और ख़ुद हुज़ूर ﷺ भी जब तक मक्का मुकर्रमा में रहे इस दिन रोज़ा रखते रहे, और जब हिजरत फ़रमा कर मदीना मुनव्वरा तशरीफ़ ले गए तो वहाँ भी आप ﷺ ने ख़ुद भी रोज़ा रखा और सहाबा-ए-किराम रिज़वानुल्लाहि अलैहिम अजमअईन को भी रोज़ा रखने का हुक्म दिया, इस से साबित हुआ कि यौमे आशूरा की फ़ज़ीलत नवासा-ए-रसूल की शहादत का वाक़िया पेश आने से पहले ही से है, लिहाज़ा हक़ीक़त ये है कि इस फ़ज़ीलत वाले दिन में सय्यिदिना हुसैन रज़ीयल्लाहु अन्हु की शहादत हुई है ना कि वाक़िया-ए-शहादत की वजह से इस दिन को फ़ज़ीलत हासिल हुई है। हज़रत इब्ने अब्बास रज़ीयल्लाहु अन्हु से रिवायत है कि जब हुज़ूर ﷺ (मक्का से हिजरत फ़रमा कर मदीना मुनव्वरा तशरीफ़ लाए तो यहूदियों को देखा कि वो यौमे आशूरा यानी दसवीं मुहर्रम को रोज़ा रखते हैं , हुज़ूर ﷺ ने यहूदियों से पूछा कि तुम लोग जो इस दिन रोज़ा रखते हो तो इस की वजह किया है? यहूदियों ने बतलाया कि ये बहुत बड़ा दिन है , इसी दिन अल्लाह ने हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम और उनकी क़ौम को फ़िरऔन जैसे ज़ालिम व जाबिर बादशाह के ज़ुल्म व सितम से नजात देकर फ़िरऔन और उस की क़ौम को दरिया में डुबोया था तो अल्लाह का शुक्र अदा करने के लिए हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम ने इस दिन रोज़ा रखा था उन्ही की इत्तिबा में हम लोग भी रोज़ा रखते हैं, हुज़ूर ﷺ ने फ़रमाया कि मैं तो तुम्हारे मुक़ाबले में मूसा अलैहिस्सलाम के ज़्यादा क़रीब हूँ (क्योंकि वो भी नबी थे और में भी नबी हूँ जब तुम लोग रोज़ा रखते हो तो मुझे तो बदरजा-ए-औला रोज़ा रखना चाहिए) चुनांचे हुज़ूर ﷺ ने ख़ुद भी रोज़ा रखा और सहाबा-ए-किराम को भी रोज़ा रखने का हुक्म दिया। (बुख़ारी शरीफ़,मुस्लिम शरीफ़) वैसे तो हुज़ूर ﷺ हिजरते मदीना से पहले मक्का ही में यौमे आशूरा को रोज़ा रखते थे जैसा कि मुस्लिम शरीफ़ के हवाले से ऊपर गुज़रा,  मगर मदीना मुनव्वरा तशरीफ़ लाने के बाद जब ये मालूम हुआ कि हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम ने शुकरन इस दिन रोज़ा रखा है तो इस रोज़े का और ज़्यादा एहतिमाम फ़रमाने लगे यहां तक कि ख़ुद तो रोज़ा रखते ही थे हज़रात सहाबा-ए-किराम को भी इस दिन रोज़ा रखने का ताकीद के साथ हुक्म फ़रमाते थे, चुनांचे हज़रत जाबिर बिन समुरा रज़ीयल्लाहु अन्हु फ़रमाते हैं कि रसूलुल्लाह ﷺ (ख़ुद भी) आशूरा का रोज़ा रखते थे और हम सब को भी इस पर उभारते थे, और हम सबकी निगरानी (भी) फ़रमाते थे (कि किस ने रोज़ा नहीं रखा) (मुस्लिम शरीफ़)
रमज़ान का रोज़ा फ़र्ज़ होने से पहले आशूरा का रोज़ा वाजिब था, रमज़ान का रोज़ा फ़र्ज़ हो जाने के बाद उस का वुजूब ख़त्म हो कर मुस्तहब हो गया, यानी जिस का जी चाहे रोज़ा रखे, जिसका जी चाहे ना रखे, जैसा कि हज़रत आइशा रज़ियल्लाहु अन्हा फ़रमाती हैं कि ''नबी-ए-अकरमﷺ रमज़ान की फ़रज़िय्यत से पहले इस (आशूरा के रोज़े का हुक्म फ़रमाया करते थे, फिर जब माहे रमज़ान के रोज़े फ़र्ज़ हो गए तो ये हुक्म हुआ कि जिस का जी चाहे वो यौमे आशूरा का रोज़ा रखे और जिसका जी चाहे ना रखे' (मुस्लिम शरीफ़)

*यौमे आशूरा के रोज़े की फ़ज़ीलत*

यौमे आशूरा का रोज़ा मुस्तहब है,  इस दिन रोज़ा रखने से पिछले एक साल के गुनाहे सगीरा(छोटे गुनाह) माफ़ हो जाते हैं, हज़रत अबू क़तादा रज़ियल्लाहु अन्हु से रिवायत है कि रसूलुल्लाह ﷺ से यौमे आशूरा के रोज़े के मुतअ़ल्लिक़ पूछा गया तो आप ﷺ ने फ़रमाया कि पिछले एक साल (के गुनाहों) को मिटा देता है (मुस्लिम शरीफ़) रमज़ान के रोज़े फ़र्ज़ हो जाने के बाद भी नबी-ए-अकरम ﷺ का मामूल यही था कि हर साल आशूरा का रोज़ा रखते थे, यहां तक कि हज़रत इब्ने अब्बास रज़ियल्लाहु अन्हु की रिवायत बताती है कि नबी-ए-करीम ﷺ (दिनों में) आशूरा के रोज़े को दूसरे दिनों के रोज़ों पर और (महीनों में) रमज़ान के रोज़े को (दूसरे महीनों के रोज़ों पर) फ़ज़ीलत देते थे (बुख़ारी शरीफ़, मुस्लिम शरीफ़) हज़रत इब्ने अब्बास रज़ियल्लाहु अन्हु की रिवायत है कि (मुहर्रम ११ हिजरी में) जब आप ﷺ ने यौमे आशूरा का रोज़ा रखा और इस के रोज़े रखने का हुक्म फ़रमाया तो सहाबा-ए-किराम ने अर्ज़ किया कि इस दिन की तो यहूद व नसारा ताज़ीम करते हैं (यानी इस दिन रोज़ा रखने से यहूद व नसारा की मुशाबहत हो रही है, जब्कि उनसे मुख़ालफ़त का हुक्म आ चुका है) तो रसूलुल्लाह ﷺ ने फ़रमाया कि जब उगला साल आएगा तो हम इंशा अल्लाह नौवीं तारीख़ का भी रोज़ा रखेंगे, रावी-ए-हदीस बयान करते हैं कि अभी उगला साल आने नहीं पाया था कि (रबीउल अव्वल ११ हिजरी में) आप ﷺ वफ़ात पा गए (मुस्लिम शरीफ़) इस हदीस शरीफ़ की वजह से फ़ुकहा-ए- किराम ने फ़रमाया है कि आशूरा के रोज़े के साथ साथ ९वीं मुहर्रम या ११वीं मुहर्रम का भी रोज़ा रख लिया जाये, ताकि यहूद व नसारा की मुशाबहत लाज़िम ना आए|

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