ज़ैनुलाब्दीन क़ासमी
हिंदुस्तान की अदालत उज़मा (सुप्रीम कोर्ट) की एक शान थी एक वक़ार था इंसाफ के उम्मीदवारों को भरोसा रहता था।
बारहा ऐसा हुआ कि निचली अदालतों में यानी हाईकोर्ट से इंसाफ ना मिलने पर अदालत-ए- उज़मा यानी सुप्रीम कोर्ट का रुख़ किया गया तो वहां से पूरा पूरा इंसाफ मिला।
कितने ऐसे बेक़ुसूर और नौजवान का मुकदमा आपने सुना होगा जिनको दहशतगर्दी के इल्ज़ाम में गिरफ्तार करके निचली अदालतों में केस चलाया गया और वहां से उन बेक़ुसूरों को फांसी तक की सज़ा सुनाई गई मगर जब वही मुकदमा अदालत ए उज़मा में ले जाया गया तो वहां से इंसाफ मिला और बाइज्ज़त रिहाई का परवाना भी मिला।
इसी तरह के ममब्नी बर इंसाफ फैसलों के पैशे नजर हमारे आकाबिर व कायदीन को दीगर मुकदमों में भी इंसाफ की भरपूर उम्मीद थी और इसी बिना पर अदालत उज़मा को इंसाफ का मंदिर तक कहा गया।
मगर मौजूदा हुकूमत में जहां दीगर शोबे हुकूमत की मंशा के मुताबिक चलते हैं वही अदालत- ए -उज़मा ने भी अपनी साख खराब कर दी है और इंसाफ का जनाजा निकाल दिया है अब अदालत -ए-उजमा से वह फैसले सादिर होने लगे हैं जो हुकूमत चाहती है और यह बात किसी से ढकी छुपी नहीं रह गई है।
ऐसी सूरते हाल के होते हुए उन कायदीन और रहनुमाओं को कोसा नहीं जा सकता जो बाबरी मस्जिद मिल्कियत मुकदमे का फैसला आने से पहले यह फरमा रहे थे कि अदालत-ए-उजमा से जो भी फैसला आएगा हमें मंजूर होगा क्योंकि अभी तक अदालत से इंसाफ के फैसले ही सादिर होते थे यह तो मौजूदा हुकूमत में अदालत का रवैया बदल गया और इंसाफ की जगह नाइंसाफी ने ले ली।
तो गलती कायदीन की नहीं है बल्कि यह बदले हुए सिस्टम की वजह से ऐसा हो रहा है।
लिहाजा क़ायदीन को कोसने वाले अहबाब को सही सूरते हाल पर नजर रखनी चाहिए ना कि अपने दिल की भड़ास निकालना चाहिए।
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